सिर पर मोर के पंख से बना मुकुट। चेहरे पर सफेद पेंट से बनी जानवरों की आकृति। वेश-भूषा भी जंगली जानवरों की तरह। ढोल-नगाड़े बज रहे हैं। कोई मुंह में आग डालकर नृत्य कर रहा तो कोई शेर की तरह गुर्रा रहा।
ये अफ्रीकी मूल के सिद्दी मुसलमान हैं। रंग-रूप, वेश-भूषा, कल्चर सबकुछ अफ्रीका के लोगों की तरह, लेकिन बोली फर्राटेदार गुजराती और हिंदी। 800 साल पहले जूनागढ़ के नवाब इन्हें गुलाम बनाकर अफ्रीका से भारत लाए थे। उसके बाद ये यहीं रच बस गए।
भरूच से करीब 35 किलोमीटर किमी दूर झगड़िया तहसील का रतनपुर गांव। चारों तरफ घने जंगल। दूर-दूर तक कोई दिखाई नहीं देता। एकदम वीरान रास्ता। बीच-बीच में जंगली जानवरों से खतरे का बोर्ड लगा हुआ है।
बाइक से संकरी राहों से गुजरते हुए डर भी लग रहा है। करीब चार किलोमीटर चलने के बाद पहाड़ी पर एक दरगाह है। इसे बाबा गोर की दरगाह कहते हैं, जो सिद्दियों का प्रमुख तीर्थ स्थल है। यहां दुनियाभर से लोग अपनी मन्नतें लेकर आते हैं।
जब मैं पहुंची तो दरगाह में लोग इबादत कर रहे थे। दुआएं पढ़ रहे थे। कई लोग ताबीज भी बनवा रहे थे। उनकी मान्यता कि बाबा गोर की ताबीज पहनने से मन्नत पूरी हो जाती है। बाबा गोर की मजार से थोड़ी दूरी पर इनकी बहन माई मिसरा की मजार है। शायद यह पहली मजार है, जहां पुरुषों को जाने की इजाजत नहीं है।
गुरुवार को यहां मानसिक रोगी महिलाएं अपना इलाज करवाने के लिए आती हैं। उन्हें 40 दिन तक हर गुरुवार यहां आना होता है। आखिरी गुरुवार को उनके बाल काटकर एक पेड़ में कील के साथ लगा दिया जाता है। मान्यता ये कि इससे उनकी बीमारी ठीक हो जाती है।
सिद्दियों के भारत आने की कई कहानियां हैं। कुछ इतिहासकारों के मुताबिक करीब 800 साल पहले जूनागढ़ के नवाब अफ्रीका गए थे। वहां उन्हें एक अफ्रीकी महिला से प्यार हो गया। कुछ दिन अफ्रीका रहने के बाद नवाब उस महिला को लेकर भारत लौट आए। महिला अपने साथ कुछ दास-दासियों को भी लेकर आई थी।
ये लोग शरीर से ताकतवर थे। बाकी लोगों के मुकाबले ज्यादा काम करते थे। नवाब ने इन्हें काम पर रख लिया। धीरे-धीरे इनकी संख्या बढ़ती गई। आज इनकी आबादी 65 हजार से ज्यादा पहुंच गई है।